शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

आग लगाने वालो...- मंगलेश डबराल

मंगलेश डबराल जी की चंद पंक्तियों की एक कविता, पर असल में एक बहुत बड़ी हकीक़त। जब भी ये कविता जेहन में उभरती है, तमाम रूपों में मौजूद भेद-भाव और शोषण की तस्वीर भी आँखों के सामने लहराने लगती है, मन के कोने में दुबकी पड़ी सामंती प्रवृत्ति जो प्रत्यक्ष रूप में भी आज भी अपनी जड़ें जमाये हुए है, कितने पुरजोर तरीके से प्रस्तुत करती हैं ये पंक्तियाँ। साथ ही एक बेहतर स्थिति की उम्मीद भी।

कल रात जब अपने कैमरे में कैद दो तस्वीरों को एक साथ देखा, तो अनायास ही ये पंक्तियाँ दस्तक देने लगीं, नतीजा एक पोस्टर के रूप में आपके सामने है...




(नीचे लिखे नाम (पोस्टर : रजनीश) पर न जायें, क्योंकि मेरे पास इसका कोई तर्क नहीं है कि लिखने के लिए मैंने दूसरा नाम (साहिल) क्यों चुना)

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

कुछ चित्र - धूमिल


(१)
सबसे अधिक हत्याएँ
समन्वयवादियों ने की।
दार्शनिकों ने
सबसे अधिक ज़ेवर खरीदा।
भीड़ ने कल बहुत पीटा
उस आदमी को
जिस का मुख ईसा से मिलता था।

(२)
वह कोई और महीना था।
जब प्रत्येक टहनी पर फूल खिलता था,
किंतु इस बार तो
मौसम बिना बरसे ही चला गया
न कहीं घटा घिरी
न बूँद गिरी
फिर भी लोगों में टी.बी. के कीटाणु
कई प्रतिशत बढ़ गए

(३)
कई बौखलाए हुए मेंढक
कुएँ की काई लगी दीवाल पर
चढ़ गए,
और सूरज को धिक्कारने लगे
--व्यर्थ ही प्रकाश की बड़ाई में बकता है
सूरज कितना मजबूर है
कि हर चीज़ पर एक सा चमकता है।

(४)
हवा बुदबुदाती है
बात कई पर्तों से आती है—
एक बहुत बारीक पीला कीड़ा
आकाश छू रहा था,
और युवक मीठे जुलाब की गोलियाँ खा कर
शौचालयों के सामने
पँक्तिबद्ध खड़े हैं।

(५)
आँखों में ज्योति के बच्चे मर गए हैं
लोग खोई हुई आवाज़ों में
एक दूसरे की सेहत पूछते हैं
और बेहद डर गए हैं।

(६)
सब के सब
रोशनी की आँच से
कुछ ऐसे बचते हैं
कि सूरज को पानी से
रचते हैं।

(७)
बुद्ध की आँख से खून चू रहा था
नगर के मुख्य चौरस्ते पर
शोकप्रस्ताव पारित हुए,
हिजड़ो ने भाषण दिए
लिंग-बोध पर,
वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ीं
आत्म-शोध पर
प्रेम में असफल छात्राएँ
अध्यापिकाएँ बन गई हैं
और रिटायर्ड बूढ़े
सर्वोदयी-
आदमी की सबसे अच्छी नस्ल
युद्धों में नष्ट हो गई,
देश का सबसे अच्छा स्वास्थ्य
विद्यालयों में
संक्रामक रोगों से ग्रस्त है ।