शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कविता - रामधारी सिंह "दिनकर"

साथियो, आज रामधारी सिंह "दिनकर" की पुण्यतिथि है। प्रस्तुत है दिनकर जी की एक कविता। कुछ समय पहले कहीं पढ़ी थी, पर कहां याद नहीं। शीर्षक क्या है मुझे नहीं पता, यदि किसी को पता हो कृपया बताएं -
 
हृदय छोटा हो
तो शोक वहां नहीं समाएगा
और दर्द दस्तक दिये बिना
दरवाजे से लौट जाएगा
टीस उसे उठती है
जिसका भाग्य खुलता है
वेदना गोद में उठाकर
सबको निहाल नहीं करती
जिसका पुण्य प्रबल होता है
वह अपने आसुओं से धुलता है।

तुम तो नदी की धारा के साथ
दौड़ रहे हो
उस सुख को कैसे समझोगे
जो हमें नदी को देखकर मिलता है
और वह फूल
तुम्हें कैसे दिखाई देगा
जो हमारी झिलमिल
अंधियारी में खिलता है।

हम तुम्हारे लिये महल बनाते हैं
तुम हमारी कुटिया को
देखकर जलते हो
युगों से हमारा तुम्हारा
यही संबंध रहा है
हम रास्ते में फूल बिछाते हैं
तुम उन्हें मसलते हुए चलते हो

दुनिया में चाहे जो भी निजाम आए
तुम पानी की बाढ़ में से
सुखों को छान लोगे
चाहे हिटलर ही
आसन पर क्यों न बैठ जाए
तुम उसे अपना आराध्य
मान लोगे

मगर हम ?

तुम जी रहे हो
हम जीने की इच्छा को तोल रहे हैं
आयु तेजी से भागी जाती है
और हम अंधेरे में
जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं।

असल में हम कवि नहीं
शोक की संतान हैं
हम गीत नहीं बनाते
पंक्तियों में वेदना के
शिशुओं को जनते हैं
झरने का कलकल
पत्तों का मर्मर
और फूलों की गुपचुप आवाज़,
ये गरीब की आह से बनते हैं।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ - मुक्तिबोध

मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ

तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।

मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है
अकेले में साहचर्य का हाथ है
उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं
किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं,
पुरस्कृत हैं
इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है
सबके सामने और अकेले में।
( मेरे रक्त-भरे महाकाव्यों के पन्ने उड़ते हैं
तुम्हारे-हमारे इस सारे झमेले में )

असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ
इसलिए कि वह चक्करदार ज़ीनों पर मिलती है
छल-छद्म धन की
किन्तु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ
जीवन की।

फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ
विष से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए एक मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता

रिफ्रिजरेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रेमों के बाहर की
गतियों की दुनिया में
मेरी वह भूखी बच्ची मुनिया है शून्यों में
पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है
छाती के कोषों में रहितों की व्रीड़ा है
शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है
सत्य केवल एक जो कि
दुःखों का क्रम है

मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ
शेवरलेट-डाज़ के नीचे मैं लेटा हूँ
तेलिया लिबास में पुरज़े सुधारता हूँ
तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

सूरज को नहीं डूबने दूंगा... - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।

देखो मैंने कंधे चौडे़ कर लिये हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एड़ियाँ जमाकर
खड़ा होना मैंने सीख लिया है।

घबराओ मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूँ।

सूरज ठीक जब पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा
मैं कंधे अड़ा दूंगा
देखना वह वहीं ठहरा होगा।
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।

मैंने सुना है उसके रथ में तुम हो
तुम्हे मैं उतार लाना चाहता हूं
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो कालातीत प्यार हो
तुम जो मेरी धमनी का प्रवाह हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
तुम्हे मैं उस रथ से उतार लाना चाहता हूं।

रथ के घोडे़
आग उगलते रहें
अब पहिये टस से मस नहीं होंगे
मैंने अपने कंधे चौडे़ कर लिये हैं।

कौन रोकेगा तुम्हें
मैंने धरती बड़ी कर ली है
अन्न की सुनहरी बालियों से
मैं तुम्हे सजाऊँगा
मैंने सीना खोल लिया है
प्यार के गीतों में मैं तुम्हे गाऊंगा
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है
हर आंखों मे तुम्हे सपनों सा फहराऊंगा।

सूरज जायेगा भी तो कहाँ
उसे यहीं रहना होगा
यहीं हमारी सांसों में
हमारी रगों में
हमारे संकल्पों में
हमारे रतजगो में

तुम उदास मत होओ
अब मैं किसी भी सूरज को
नहीं डूबने दूंगा।