मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

सूरज को नहीं डूबने दूंगा... - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।

देखो मैंने कंधे चौडे़ कर लिये हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एड़ियाँ जमाकर
खड़ा होना मैंने सीख लिया है।

घबराओ मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूँ।

सूरज ठीक जब पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा
मैं कंधे अड़ा दूंगा
देखना वह वहीं ठहरा होगा।
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।

मैंने सुना है उसके रथ में तुम हो
तुम्हे मैं उतार लाना चाहता हूं
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो कालातीत प्यार हो
तुम जो मेरी धमनी का प्रवाह हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
तुम्हे मैं उस रथ से उतार लाना चाहता हूं।

रथ के घोडे़
आग उगलते रहें
अब पहिये टस से मस नहीं होंगे
मैंने अपने कंधे चौडे़ कर लिये हैं।

कौन रोकेगा तुम्हें
मैंने धरती बड़ी कर ली है
अन्न की सुनहरी बालियों से
मैं तुम्हे सजाऊँगा
मैंने सीना खोल लिया है
प्यार के गीतों में मैं तुम्हे गाऊंगा
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है
हर आंखों मे तुम्हे सपनों सा फहराऊंगा।

सूरज जायेगा भी तो कहाँ
उसे यहीं रहना होगा
यहीं हमारी सांसों में
हमारी रगों में
हमारे संकल्पों में
हमारे रतजगो में

तुम उदास मत होओ
अब मैं किसी भी सूरज को
नहीं डूबने दूंगा।