ख़ार-ओ-ख़स तो उठें रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया क़ाफ़िला तो चले
चांद सूरज बुज़ुर्गों के नक्श-ए-क़दम
ख़ैर बुझने दो उन को, हवा तो चले
हाकिम-ए-शहर, यह भी कोई शहर है
मस्जिदें बन्द हैं, मैकदा तो चले
इस को मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊंगा
आप ईंटों की हुर्मत बचा तो चले
बेल्चे लाओ खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ्न हूँ कुछ पता तो चले।