बुधवार, 22 अप्रैल 2009

घिन तो नहीं आती है ? - नागार्जुन

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचका
सटता है बदन से बदन –
पसीने से लथपथ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूंछों की थिरकन
सच-सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढ़ता है?

कुली-मजदूर हैं
बोझा ढोते हैं, खींचते हैं ठेला
धूल-धुँआ-भाफ से पड़ता है साबक़ा
थके-मांदे जहाँ-तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं दिल की धड़कन
आकर ट्राम के अंदर पिछले डब्बे में
बैठ गए हैं इधर-उधर तुमसे सटकर
आपस में उनकी बतकही
सच-सच बतलाओ
नागवार तो नहीं लगती है?
जी तो नहीं कुढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?

दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना था पंखे के नीचे, अगले डब्बे में
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस-कोस की
सच-सच बतलाओ
अखरती तो नहीं है इनकी सोहबत?
जी तो नहीं कुढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

रोटियाँ - नजीर अकबराबादी

जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियां
फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियां
आँखें परीरुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ
जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ

रोटी से जिस का नाक तलक पेट है भरा
करता फिरे है क्या वो उछल कूद जा ब जा
दीवार फाँद कर कोई कोठा उछल गया
ठठ्ठा हँसी शराब सनम साक़ी इस सिवा
सौ सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ

जिस जा पे हाँडी चूल्हा तवा और तनूर है
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हज़ूर है
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है
इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ

आवे तवे तनूर का जिस जा ज़बां पे नाम
या चक्की चूल्हे का जहाँ गुलज़ार हो तमाम
वां सर झुका के कीजिये दंडवत और सलाम
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम
पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ

इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर पूर
आटा नहीं है छलनी से छन छन गिरे है नूर
पेड़ा हर एक उस का है बर्फ़ी-ओ-मोती चूर
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर
इस आग को मगर ये बुझाती हैं रोटियाँ

पूछा किसी ने ये किसी कामिल फ़क़ीर से
ये मेह्र-ओ-माह हक़ ने बनाये हैं काहे के
वो सुन के बोला बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे
हम तो न चाँद समझे न सूरज हैं जानते
बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ

फिर पूछा उस ने कहिये ये है दिल का नूर क्या
इस के मुशाहिदे में है खुलता ज़हूर क्या
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या
जितने हीं कश्फ़ सब ये दिखाती हैं रोटियाँ

रोटी जब आई पेट में सौ कन्द घुल गये
गुलज़ार फूले आँखों में और ऐश तुल गये
दो तर निवाले पेट में जब आ के धुल गये
चौदा तबक़ के जितने थे सब भेद खुल गये
ये कश्फ़ ये कमाल दिखाती हैं रोटियाँ

रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो
मेले की सैर ख़्वाहिश-ए-बाग़-ओ-चमन न हो
भूके ग़रीब दिल की ख़ुदा से लगन न हो
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो
अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ

अब जिन के आगे मालपूये भर के थाल हैं
पूरी भगत उन्हीं की वो साहब के लाल हैं
और जिन के आगे रौग़नी और शीरमाल है
आरिफ़ वोही हैं और वोही साहब कमाल हैं
पकी पकाई अब जिन्हें आती हैं रोटियाँ

कपड़े किसी के लाल हों रोटी के वास्ते
लम्बे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते
बाँधे कोई रुमाल है रोटी के वास्ते
सब कश्फ़ और कमाल हैं रोटी के वास्ते
जितने हैं रूप सब ये दिखाती हैं रोटियाँ

रोटी से नाचे पियादा क़वायद दिखा दिखा
असवार नाचे घोड़े को कावा लगा लगा
घुँघरू को बाँधे पैक भी फिरता है नाचता
और इस के सिवा ग़ौर से देखो तो जा ब जा
सौ सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ

दुनिया में अब बदी न कहीं और निकोई है
न दुश्मनी व दोस्ती न तुन्द खोई है
कोई किसी का और किसी का न कोई है
सब कोई है उसी का कि जिस हाथ डोई है
नौकर नफ़र ग़ुलाम बनाती हैं रोटियाँ

रोटी का अब अज़ल से हमारा तो है ख़मीर
रूखी भी रोटी हक़ में हमारे है शहद-ओ-शीर
या पतली होवे मोटी ख़मीरी हो या कतीर
गेहूं जुआर बाजरे की जैसी हो ‘नज़ीर‘
हम को सब तरह की ख़ुश आती हैं रोटियाँ.