गुरुवार, 19 अगस्त 2010

सपने - पाश

सपने
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग को सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुई
हथेली के पसीने को सपने नहीं आते
शेल्फ़ों में पड़े
इतिहास-ग्रंथों को सपने नहीं आते

सपनों के लिए लाज़िमी है
झेलने वाले दिलों का होना
सपनों के लिए
नींद की नज़र होनी लाज़िमी है
सपने इसलिए
हर किसी को नहीं आते।

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

रास्ता तो चले - कैफ़ी आज़मी

ख़ार-ओ-ख़स तो उठें रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया क़ाफ़िला तो चले

चांद सूरज बुज़ुर्गों के नक्श-ए-क़दम
ख़ैर बुझने दो उन को, हवा तो चले

हाकिम-ए-शहर, यह भी कोई शहर है
मस्जिदें बन्द हैं, मैकदा तो चले

इस को मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले

इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊंगा
आप ईंटों की हुर्मत बचा तो चले

बेल्चे लाओ खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ्न हूँ कुछ पता तो चले।

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

खिलौने - कैफ़ी आज़मी

रेत की नाव, काठ के माँझी
काठ की रेल, सीप के हाथी
हल्की भारी प्लास्टिक की किलें
मोम के चाक जो रुकें न चलें

राख के खेत, धूल के खलियान
भाप के पैरहन, धुएँ के मकान
नाहर जादू की, पुल दुआओं के
झुनझुने चन्द योजनाओं के

सूत के चेले, मूँज के उस्ताद
तेशे दफ्ती के, काँच के फर्हाद
आलिम आटे के और रूए के इमाम
और पन्नी के शाइरान-ए-कराम
ऊन के तीर, रुई की शमशीर
सदर मिट्टी का और रबर के वज़ीर

अपने सारे खिलौने साथ लिये
दस्त-ए-ख़ाली में कायनात लिये
दो सुतूनों में तान कर रस्सी
हम ख़ुदा जाने कब से चलते हैं
न तो गिरते हैं न संभलते हैं.

बुधवार, 16 जून 2010

सीने में जलन - शहरयार

जाने-माने शाइर शहरयार को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए प्रस्तुत है 1979 में बनी फ़िल्म गमन के लिए लिखी गई उनकी यह ग़ज़ल -

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है

तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है

हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमां पशेमान सा क्यूँ है

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है.

मंगलवार, 1 जून 2010

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं - अदम गोंडवी

अपनी रचनाओं के द्वारा व्यवस्था पर, चाहे वह सामाजिक हो या राजनैतिक, करारी चोट करने वाले रचनाकारों में से अदम गोंडवी एक जाना-पहचाना नाम है। सामाजिक रूढ़ियों, द्वंद से मन में उठे आक्रोश को अदम गोंडवी जी की रचनाओं में बड़ी ही संवेदना और प्रखरता से महसूस किया जा सकता है। प्रस्तुत है अदम गोंडवी जी की एक ग़ज़ल......

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें

लोकरंजन हो जहां शम्बूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें

कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्या करें

बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूंठ में भी सेक्स का एहसास लेकर क्या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कविता - रामधारी सिंह "दिनकर"

साथियो, आज रामधारी सिंह "दिनकर" की पुण्यतिथि है। प्रस्तुत है दिनकर जी की एक कविता। कुछ समय पहले कहीं पढ़ी थी, पर कहां याद नहीं। शीर्षक क्या है मुझे नहीं पता, यदि किसी को पता हो कृपया बताएं -
 
हृदय छोटा हो
तो शोक वहां नहीं समाएगा
और दर्द दस्तक दिये बिना
दरवाजे से लौट जाएगा
टीस उसे उठती है
जिसका भाग्य खुलता है
वेदना गोद में उठाकर
सबको निहाल नहीं करती
जिसका पुण्य प्रबल होता है
वह अपने आसुओं से धुलता है।

तुम तो नदी की धारा के साथ
दौड़ रहे हो
उस सुख को कैसे समझोगे
जो हमें नदी को देखकर मिलता है
और वह फूल
तुम्हें कैसे दिखाई देगा
जो हमारी झिलमिल
अंधियारी में खिलता है।

हम तुम्हारे लिये महल बनाते हैं
तुम हमारी कुटिया को
देखकर जलते हो
युगों से हमारा तुम्हारा
यही संबंध रहा है
हम रास्ते में फूल बिछाते हैं
तुम उन्हें मसलते हुए चलते हो

दुनिया में चाहे जो भी निजाम आए
तुम पानी की बाढ़ में से
सुखों को छान लोगे
चाहे हिटलर ही
आसन पर क्यों न बैठ जाए
तुम उसे अपना आराध्य
मान लोगे

मगर हम ?

तुम जी रहे हो
हम जीने की इच्छा को तोल रहे हैं
आयु तेजी से भागी जाती है
और हम अंधेरे में
जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं।

असल में हम कवि नहीं
शोक की संतान हैं
हम गीत नहीं बनाते
पंक्तियों में वेदना के
शिशुओं को जनते हैं
झरने का कलकल
पत्तों का मर्मर
और फूलों की गुपचुप आवाज़,
ये गरीब की आह से बनते हैं।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ - मुक्तिबोध

मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ

तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।

मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है
अकेले में साहचर्य का हाथ है
उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं
किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं,
पुरस्कृत हैं
इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है
सबके सामने और अकेले में।
( मेरे रक्त-भरे महाकाव्यों के पन्ने उड़ते हैं
तुम्हारे-हमारे इस सारे झमेले में )

असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ
इसलिए कि वह चक्करदार ज़ीनों पर मिलती है
छल-छद्म धन की
किन्तु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ
जीवन की।

फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ
विष से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए एक मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता

रिफ्रिजरेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रेमों के बाहर की
गतियों की दुनिया में
मेरी वह भूखी बच्ची मुनिया है शून्यों में
पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है
छाती के कोषों में रहितों की व्रीड़ा है
शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है
सत्य केवल एक जो कि
दुःखों का क्रम है

मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ
शेवरलेट-डाज़ के नीचे मैं लेटा हूँ
तेलिया लिबास में पुरज़े सुधारता हूँ
तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

सूरज को नहीं डूबने दूंगा... - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।

देखो मैंने कंधे चौडे़ कर लिये हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एड़ियाँ जमाकर
खड़ा होना मैंने सीख लिया है।

घबराओ मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूँ।

सूरज ठीक जब पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा
मैं कंधे अड़ा दूंगा
देखना वह वहीं ठहरा होगा।
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।

मैंने सुना है उसके रथ में तुम हो
तुम्हे मैं उतार लाना चाहता हूं
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो कालातीत प्यार हो
तुम जो मेरी धमनी का प्रवाह हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
तुम्हे मैं उस रथ से उतार लाना चाहता हूं।

रथ के घोडे़
आग उगलते रहें
अब पहिये टस से मस नहीं होंगे
मैंने अपने कंधे चौडे़ कर लिये हैं।

कौन रोकेगा तुम्हें
मैंने धरती बड़ी कर ली है
अन्न की सुनहरी बालियों से
मैं तुम्हे सजाऊँगा
मैंने सीना खोल लिया है
प्यार के गीतों में मैं तुम्हे गाऊंगा
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है
हर आंखों मे तुम्हे सपनों सा फहराऊंगा।

सूरज जायेगा भी तो कहाँ
उसे यहीं रहना होगा
यहीं हमारी सांसों में
हमारी रगों में
हमारे संकल्पों में
हमारे रतजगो में

तुम उदास मत होओ
अब मैं किसी भी सूरज को
नहीं डूबने दूंगा।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

कभी अपने घर भी - गुलज़ार

गुलज़ार साहब की कुछ पंक्तियों की कवितायें - "त्रिवेणियाँ" . एक फूस के घर को देखकर याद आई उन्ही त्रिवेनियों में से एक. आप भी देखिये वो फूस का घर और खुदा को दिया गया न्यौता....

बुधवार, 27 जनवरी 2010

अक्सर एक व्यथा - सर्वेश्वर

अक्सर एक गन्ध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीं पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है ।

अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटर का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है ।

अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।