उन्हें समर्पित, जिन्हें पढ़ना हमेशा ख़ुद को कुरेदना भी रहा।
बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब -
"रेख्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब, सुनते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था"
गुलज़ार साहब की कुछ पंक्तियों की कवितायें - "त्रिवेणियाँ" . एक फूस के घर को देखकर याद आई उन्ही त्रिवेनियों में से एक. आप भी देखिये वो फूस का घर और खुदा को दिया गया न्यौता....