बुधवार, 22 अप्रैल 2009

घिन तो नहीं आती है ? - नागार्जुन

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचका
सटता है बदन से बदन –
पसीने से लथपथ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूंछों की थिरकन
सच-सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढ़ता है?

कुली-मजदूर हैं
बोझा ढोते हैं, खींचते हैं ठेला
धूल-धुँआ-भाफ से पड़ता है साबक़ा
थके-मांदे जहाँ-तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं दिल की धड़कन
आकर ट्राम के अंदर पिछले डब्बे में
बैठ गए हैं इधर-उधर तुमसे सटकर
आपस में उनकी बतकही
सच-सच बतलाओ
नागवार तो नहीं लगती है?
जी तो नहीं कुढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?

दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना था पंखे के नीचे, अगले डब्बे में
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस-कोस की
सच-सच बतलाओ
अखरती तो नहीं है इनकी सोहबत?
जी तो नहीं कुढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?