उन्हें समर्पित, जिन्हें पढ़ना हमेशा ख़ुद को कुरेदना भी रहा।
बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब -
"रेख्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब, सुनते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था"
मंगलेश डबराल जी की चंद पंक्तियों की एक कविता, पर असल में एक बहुत बड़ी हकीक़त। जब भी ये कविता जेहन में उभरती है, तमाम रूपों में मौजूद भेद-भाव और शोषण की तस्वीर भी आँखों के सामने लहराने लगती है, मन के कोने...
(१)सबसे अधिक हत्याएँसमन्वयवादियों ने की।दार्शनिकों नेसबसे अधिक ज़ेवर खरीदा।भीड़ ने कल बहुत पीटाउस आदमी कोजिस का मुख ईसा से मिलता था।(२)वह कोई और महीना था।जब प्रत्येक टहनी पर फूल खिलता था,किंतु इस बार तोमौसम बिना बरसे ही चला गयान कहीं घटा घिरीन बूँद गिरीफिर भी लोगों में टी.बी. के कीटाणुकई प्रतिशत बढ़...