मंगलवार, 25 अगस्त 2009

दो कवितायें - हरिओम राजोरिया

हरिओम राजोरिया हिन्दीभाषी कवियों में एक स्थापित नाम है। मध्य प्रदेश के छोटे से कस्बे (जिसे अब जिला होने का भी दर्जा मिल चुका है) अशोकनगर में रहने वाले हरिओम पेशे से तो इंजिनियर हैं पर उससे कहीं ज़्यादा कवि, रंगकर्मी और आम आदमी। इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हरिओम की कविताओं में वे छोटी-छोटी चीज़ें शामिल हैं जिन्हें अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है, और यही उन्हें उद्वेलित भी करता है। हरिओम के बारे में ज़्यादा कुछ कहना मेरे लिए मुश्किल है, इतना भर कह सकता हूँ कि मुझे और मेरे जैसे कई नए, बिल्कुल नए और ख़त्म हो चुके लोगों को लेखन के लिए उकसाने वाले लोगों में पहला नाम हरिओम का है। प्रस्तुत हैं हरिओम राजोरिया कि दो कवितायें जो उनके पहले प्रकाशन "यह एक सच है" (१९९३) से ली गई हैं -

(१)
ठीक आदमी

यह जो ठीक दिखना चाहता है
इस आदमी की आदतों पर
थोड़ा गौर करना चाहिए
ठीक आदमी के कपड़े
हर समय इतने साफ़ और सलीकेदार नहीं होते
ठीक आदमी हमेशा नहीं रहते खुश

इतने सभ्य नहीं होते ठीक आदमी
न ही वे तयशुदा ढंग से मुस्कुराते हैं
हर तरफ़ से ठीक नहीं होते ठीक आदमी
ठीक आदमी से नहीं करते
इतने सारे लोग नमस्कार

इस ठीक आदमी कि
ठीक से होनी चाहिए पहचान
जब तक इसे कहते रहोगे ठीक
ठीक आदमी
नहीं होंगे ठीक।

(२)
घर

दादा ने पिता के कान में कहा-
'घर बनाओ'

रिटायर होने से पहले
जी.पी.ऍफ़. के दम पर
पिता ने देखा
घर बनाने का सपना

चूल्हा-चौका करती
घर को झींकती
बूढी हो गई माँ

घर के बारे में सोचती
पराये घरों को
चली गईं बहिनें

घर
जैसे एक काँटा था खजूर का
जो पीढी-दर-पीढी
सरकता रहा खाल में।